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कविता

वैबसाइट पर हमारे

माधव कौशिक


वैबसाइट पर हमारे
स्वप्न
खंडित दिख रहे हैं।

है नहीं कंप्यूटरों में
गाँव की चौपाल अपनी
किस तरह कैसे बचाए
अब कोई भी खाल अपनी।
अपनी परछाई से ही
सब लोग शंकित दिख रहे हैं।

शब्द बदले अंक में
और अंक की छवियाँ हुई
हर सनातन शृंखला की
टूटकर कड़ियाँ हुई
आज के वरदान सारे
कल के शापित दिख रहे हैं।

हाथ से कारीगरों के
छीन ली हमने कुदालें
भूख से व्याकुल समय को
अब समय कैसे सँभाले
सुबह के उजले उजाले
क्यों प्रदूषित दिख रहे हैं।

 


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